शनिवार, दिसंबर 14, 2024

अभी तो पहुना दिल्ली दूर खड़ी है

 

दिसंबर का पहला सप्ताह था। रात दो बजे दिल्ली हवाई अड्डे से कनाडा वापस आने की फ्लाइट लेनी थी। नोएडा में जहां हम रुके थे वहाँ से एयरपोर्ट पहुँचने में आमूमन एक से सवा घंटे लगने थे। चूंकि एयरपोर्ट तीन घंटे पहले पहुंचना होता है अतः थोड़ा मार्जिन रखकर नोएडा से 9 बजे ही टैक्सी से निकल पड़े। अभी निकले ही थे कि सामने से एक बारात निकल रही थी। आज मेरे यार की शादी है बैण्ड पर बज रहा था और बाराती झूम झूम कर नाच रहे थे। 10 मिनट नाच देखते रहे मजबूरी में, तब उन्हीं बारातियों में एक सज्जन रास्ता साफ कराते नजर आए मानो ट्रेफिक पुलिस का सारा जिम्मा उन्होंने ले लिया हो।  हर बारात में एक फूफा यह जिम्मेदारी अपने काँधों पर थामे रहता है मगर हर बार 10 मिनट नाच लेने के बाद ही उसे अपनी जिम्मेदारियों का होश आता है।

खैर एक बारात से छूटे और अभी 4 मिनट भी न गुजरे होंगे, दूसरी बारात। ये देश है वीर जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का बज रहा है और सब बाराती नाच रहे हैं। फिर 10 मिनट में फूफा अवतरित हुए और गाड़ी आगे बढ़ी। हर दो तीन मिनट में एक नई बारात- एक नया गाना और फिर एक नया फूफा। जैसे जैसे नई बारात मिल रही थी, रात भी अपने शुमार पर चढ़ रही थी और बारातियों पर नशे का खुमार भी। शेर नाच देखा। नागिन नाच तो जमीन पर लोट लोट कर बाराती नाच रहे और सांप हमारी छाती पर लोट रहा था कि एयरपोर्ट कब पहुंचेंगे?

टैक्सी वाले ने रेडियो लगा दिया तो सुनाई पड़ा कि आज दिल्ली में 37000 शादियाँ हैं। हमने तो अभी पिछले एक घंटे में 15 मिनट का सफर करके मात्र 11 शादियाँ क्रॉस की हैं। 37000 -रूह कांप गई। एक बार को लगा कि शायद पैदल इससे जल्दी पहुँच जाएंगे मगर सामान का ख्याल आते ही इस लगा को भगा दिया। वैसे खाली हाथ भी होते तो कौन इतना चल पाते। सोच का घोडा है कहीं भी दौड़ लेता है फिर हकीकत की लगाम उसे थामती है।

जब हमारे हाथ मे कुछ नहीं रह जाता तब हम प्रभु की तरफ ताकते है कि हे प्रभु, अब तुम्हीं नैया पार लगाओ।

अजब बात तो ये है बारात बढ़े न बढ़े, गाड़ी आगे बढ़े न बढ़े, समय तो बढ़ता ही रहता है।

आज मेरे यार की शादी से शुरू हुई एयरपोर्ट तक की यात्रा, अभी तो बबुआ पहली भंवर पड़ी है, अभी तो पहुना दिल्ली दूर खड़ी है से होते हुए बाबुल की दुआएं लेती जा तक जा पहुंची मगर जहां पहुंचना था वहाँ तक अभी भी न पहुंची। उधर आसमान नारंगी होने को था, चिड़ियाँ चहचहाने को लगभग तैयार थीं और हम एयरपोर्ट में घुसने को। घड़ी देखी 5:30 बजने को था मगर फिर भी हम टैक्सी से उतर कर एयरपोर्ट के मुख्य द्वार की तरफ भागे। हवाई जहाज तो दो बजे उड़ ही गया होगा मगर हम न जाने क्या पकड़ने भागे जा रहे थे।

काऊँटर पर जाकर हमने कहा कि थोड़ा लेट हो गए। वो मुस्कराया और बोला कि इसे लेट होना नहीं कहते – इसे लेटकर सो जाना कहते हैं। आपकी नींद तब खुली है जब हवाई जहाज दुबई में उतरने को है।

अब क्या करते। दोनों टिकट बेकार चली गई। हाई सीजन था अतः अगली फ्लाइट महंगी और दो दिन बाद की मिली। दो दिन होटल में रुके रहे सो अलग। एयरपोर्ट से सटा हुआ होटल लिया तो थोड़ा महंगा तो था मगर फिर से बारात में फँसने की न तो की इच्छा थी और न ही हिम्मत।

आज इतने बरस बाद फेसबुक पर बैठा हूँ तो सैकड़ों जानकार लोगों को 20 वीं शादी की सालगिरह की पोस्ट चढ़ाते देख रहा हूँ। उसमें से अधिकतर दिल्ली के हैं और याद आता है वो 20 बरस पहले आज ही का दिन था जब हम फंसे थे।

सोच रहा हूँ इनको बधाई दूँ या इनके बीच में 4000 डॉलर के नुकसान का मय ब्याज बंटवारा करके बिल भेज दूँ। चलो इस घटना से प्रेरणा लेकर इतना भी हो जाए कि जिस तरह यहाँ बाईक लाइन अलग से होती है ताकि तेज रफ्तार गाड़ी, एम्बुलेंस और अन्य एमेरजेन्सी वाहनों को कोई तकलीफ न हो और सब कार्य सुचारु रूप से होते रहें, उसी की तर्ज पर एक बारात लाईन बनवा दो हर सड़क के किनारे किनारे। कौन जाने कौन सी जान किसी एम्बुलेंस में, किसी का सर्वस्व आग में तबाह होने से या किसी की एमेरजेन्सी फ्लाइट या रेल छूटने से बच जाए। हर इंसान तो मंत्री होता नहीं है कि उनके चलने के लिए सड़कें पहले से खाली करवा ली जाए और न ही हर एम्बुलेंस की किस्मत ऐसी होती है कि चुनाव का समय हो और मंत्री जी फोटो ऑप के चक्कर में एम्बुलेंस को रास्ता दे रहे हों।  

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार 15 दिसंबर ,2024 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/14953


 

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शनिवार, दिसंबर 07, 2024

बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

 

तिवारी जी ने कभी जीवन भर नौकरी नहीं की किन्तु नौकरी करने में क्या समस्या आती है, बॉस कैसे परेशान करते हैं, उनसे निपटने के लिए क्या हथकंडे अपनाना चाहिए आदि पर वह नियमित ही अपना ज्ञान पान के ठेले पर बैठे देते रहते थे। वैसे नौकरी तो घंसु ने भी कभी नहीं की लेकिन हाँ में हाँ मिलाने में सबसे आगे वही रहता कि तिवारी बिल्कुल सही कह रहे हैं। नौकरी न करने के मामले तिवारी जी और घंसु में मात्र इतना अंतर था कि तिवारी जी ने कभी खोजी ही नहीं और घंसु को कभी मिली नहीं। घंसु थे तो आठवीं पास लेकिन उसने इस कमी को अपनी महत्वाकांक्षाओं के आड़े नहीं आने दिया वो लगातार मैनेजर पद की नौकरी तलाशता रहा और मैनेजर पद की नौकरियां उससे मुंह चुराती रहीं।

तिवारी जी का जिंदगी के प्रति नजरिया एकदम साफ था। उनका शुरू से मानना रहा की अगर जीवन में आप अपना उद्देश्य जानते हैं तो सफलता जरूर हाथ लगेगी। तिवारी जी का उद्देश्य एकदम स्पष्ट था। जब तक पिता जी की नौकरी और फिर पेंशन आएगी तब तक तो उनके भरोसे चल लेंगे और जल्दी शादी करके पिता जी के गुजरने के पहले अपने बच्चों को इतना बड़ा कर लेंगे ताकी वो कमाने लगें तो बाकी की जिंदगी उनके भरोसे चल जाएगी।

इधर तिवारी जी अपना उद्देश्य साध रहे थे, उधर गालिब बैठे इनकी किस्मत लिख रहे थे:

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले

बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।

तो हुआ यूं कि तयशुदा हिसाब से जीवन की गाड़ी चल रही थी। माता जी जल्द ही स्वर्ग सिधार गईं। तिवारी जी बारहवीं पास कर घर बैठ गए थे। पिता जी ने पड़ोस के गाँव में शादी तय कर दी। किन्तु शादी के ठीक दो माह पूर्व पिता जी भी स्वर्ग सिधार गए। किराये का मकान था, आय का कोई स्त्रोत था नहीं अतः विकल्पों के आभाव में तिवारी जी ने तय तारीख पर शादी कर ली और फिर ससुराल में ही रह गए। वैसे भी कहाँ जाते और क्या खाते?

ससुर साहब की एक ही बेटी है। सरकारी बाबू के पद से रिटायर हुए हैं तो पेंशन आती है और पुश्तैनी दो मंजिला मकान है। ऊपर परिवार रहता है और नीचे दो दुकानें किराये पर दे रखी हैं। बहुत नहीं तो भी ठीक ठाक तो घर चल ही जाता है। तिवारी जी पूर्व में तय योजना के अनुसार जल्द ही बच्चे कर लेना चाहते थे ताकि जब वो कमाने लगें तो थोड़ा इंडिपेंडेंट हो लें। बहुत निकले मिरे अरमान की तर्ज पर तिवारी जी प्रयासरत रहे लेकिन बच्चे हुए ही नहीं। उद्देश्यों ने आधार खो दिया और तिवारी जी पूर्णरूप से ससुराल आधारित ही हो गए।

अब उनकी एक नियमित दिनचर्या भी हो गई। सुबह चौक पर दुकाने खुलते ही तिवारी जी पान के ठेले की बैंच पर आ बैठते और वहाँ मौजूद अन्य खाली लोगों पर ज्ञान वर्षा करते रहते। इसी सत्संग का वरदान रहा कि घँसु जैसा चेला मिल गया। एक बार दोपहर में खाना खाने और फिर रात को दुकानें बंद हो जाने पर ही घर जाते। कभी नागा नहीं- अनुशासन के एकदम पक्के।

इस बीच कब ससुर जी गुजर गए, कब किराये के असल हकदार तिवारी जी हो गए। पति पत्नी दो लोग - घर खर्च के बाद भी कुछ रुपया बच ही जाता अतः जैसा की अधिक रुपयों के साथ होता है कि कुछ शौक जन्म ले बैठे। अब अक्सर रात में दुकाने बंद होने के बाद घंसु के साथ दो दो पैग लगा लेते तब घर आते। पीने की आदत ने एकाएक ज्ञान बांटने की प्रतिभा में चार चाँद लगा दिए।

कल आप पेंशन पर ज्ञान दे रहे थे और सरकार को उनके वाहियात नियमों के लताड़ रहे थे। उनके मित्र नेमा जी के साथ वो पेंशन कार्यालय गए थे, जहाँ प्रतिवर्ष के अनुसार इस वर्ष भी नेमा जी अपने जीवित होने का प्रमाण पत्र जमा करा है थे। बड़े बाबू ने फाईल देखकर बताया कि आपकी फाईल पर पिछले वर्ष का जीवित होने प्रमाण पत्र नहीं है। या तो उसको जमा कराएं अन्यथा पिछले वर्ष की पेंशन मय ब्याज और पेनाल्टी के वापस ले ली जाएगी।

तिवारी जी मदद हेतु आगे बढ़े और उन्होंने बाबू को समझाया कि जब नेमा जी आज जिंदा होने का प्रमाण पत्र दे रहे हैं तो पिछले बरस भी तो जिंदा रहे ही होंगे। बाबू बस एक राग पकड़े बैठा रहा कि हम कैसे मान लें, कोई कागज तो है ही नहीं। काफी बहस के बाद यह तय पाया गया कि बैंक चलकर पुनः पिछले बरस का प्रमाण पत्र बनवा लेते हैं।

बैंक पहुंचे तो वहाँ भी वही सवाल कि हम कैसे मान लें कि आप पिछले बरस भी जिंदा थे? नेमा जी के लिए यह प्रमाणित करना असंभव सा होता जा रहा था कि वह पिछले बरस भी जिंदा थे। इस साल का तो पक्का है कि जिंदा हैं, प्रमाण पत्र लेमिनेट करा लिया है। कई परम्पराएं भले ही समाज के लिए भली न हों तो भी कभी कभी, जब आपका काम अटकता है तो जीवनदायनी सी बन कर आपको भवसागर पार करवा ही देती हैं। रिश्वतखोरी उन्हीं परंपराओं की पहली पायदान पर सदा से विराजती रही है।

किसी तरह ले देकर नेमा जी को पिछले बरस फिर से जिंदा किया गया, प्रमाण पत्र जारी हुआ। पेंशन की फाईल में नत्थी हुआ और तब जाकर जिंदगी में कॉन्टिन्यूटी आई वरना नेमा जी जीवन बीच में एक साल बिना जिंदा रहे ही गुजरता जाता।

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार दिसंबर ,२०२4 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/14837

 

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शनिवार, नवंबर 11, 2023

मुसीबतें भी अलग अलग आकार की होती है

 



कहते हैं, मुसीबत कैसी भी हो, जब आनी होती है-आती है और टल जाती है-लेकिन जाते जाते अपने निशान छोड़ जाती है.

इन निशानियों को बचपन से देखता आ रहा हूँ और खास तौर पर तब से-जब से गेस्ट हाऊसेस (विश्राम गॄहों)  और होटलों में ठहरने लगा. बाथरुम का शीशा हो या ड्रेसिंग टेबल का, उस पर बिन्दी चिपकी जरुर दिख जाती है. क्या वजह हो सकती है? कचरे का डब्बा बाजू में पड़ा है. नाली सामने है. लेकिन नहीं, हर चीज डब्बे मे डाल दी जायेगी या नाली में बहा देंगे पर बिन्दी, वो माथे से उतरी और आईने पर चिपकी. जाने आईने पर चिपका कर उसमें अपना चेहरा देखती हैं कि क्या करती हैं, मेरी समझ से परे रहा. यूँ भी मुझे तो बिन्दी लगानी नहीं है तो मुझे क्या? मगर एकाध बार बीच आईने पर चिपकी बिन्दी पर अपना माथा सेट करके देखा तो है, जस्ट उत्सुकतावश. देखकर बढ़िया लगा था. फोटो नहीं खींच पाया वरना दिखलाता.

यही तो मानव स्वभाव है कि जिस गली जाना नहीं, उसका भी अता पता जानने की बेताबी.

मुसीबतें भी अलग अलग आकार की होती है, तो वैसे ही यह निशान भी. श्रृंगार, शिल्पा ब्राण्ड की छोटी छोटी बिन्दी से लेकर सुरेखा और सिंदुर ब्राण्ड की बड़ी बिन्दियाँ. सब का अंतिम मुकाम- माथे से उतर कर आईने पर.

कुछ बड़ी साईज़ की मुसीबतें,  बतौर निशानी, अक्सर बालों में फंसाने वाली चिमटी भी बिस्तर के साईड टेबल पर या बाथरुम के आईने के सामने वाली प्लेट पर छोड़ दी जाती हैं. इस निशानी की मुझे बड़ी तलाश रहती है. नये जमाने की लड़कियाँ तो अब वो चिमटी लगाती नहीं, अब तो प्लास्टिक और प्लेट वाली चुटपुट फैशनेबल हेयरक्लिपस का जमाना आ गया मगर कान खोदने एवं कुरेदने के लिए उससे मुफ़ीद औजार मुझे आज तक दुनिया में कोई नजर नहीं आया. चाहें लाख ईयर बड से सफाई कर लो, मगर एक आँख बंद कर कान कुरेदने का जो नैसर्गिक आनन्द उस चिमटी से है वो इन ईयर बडस में कहाँ?

औजार के नाम पर एक और औजार जिसे मैं बहुत मिस करता हूँ वो है पुराने स्वरूप वाला टूथब्रश ... नये जमाने के कारण बदला टूथब्रश का स्वरुप. आजकल के कोलगेटिया फेशनेबल टूथब्रशों में वो बात कहाँ? आजकल के टूथब्रश तो मानो बस टूथ ब्रश ही करने आये हों, और किसी काम के नहीं. स्पेशलाईजेशन और विशेष योग्यताओं के इस जमाने में जो हाल नये कर्मचारियों का है, वो ही इस ब्रश का. हरफनमौलाओं का जमाना तो लगता है बीते समय की बात हो, फिर चाहे फील्ड कोई सा भी क्यूँ न हो.

बचपन में जो टूथब्रश लाते थे, उसके पीछे एक छेद हुआ करता था जिसमें जीभी (टंग क्लीनर) बांध कर रखी जाती थी. ब्रश के संपूर्ण इस्तेमाल के बाद, यानि जब वह दांत साफ करने लायक न रह जाये तो उसके ब्रश वाले हिस्से से पीतल या ब्रासो की मूर्तियों की घिसाई ..फिर इन सारे इस्तेमालों आदि के हो जाने के उपरान्त जहाँ ब्रश के स्थान पर मात्र ठूंठ बचे रह जाते थे, ब्रश वाला हिस्सा तोड़कर उसे पायजामें में नाड़ा डालने के लिए इस्तेमाल किया जाता था. नाड़ा डालने के लिए उससे सटीक और सुविधाजनक औजार भी मैने और कोई नहीं देखा.

जिस भी होटल या गेस्ट हाऊस के बाथरुम के या ड्रेसिंग टेबल के आईने पर मुझे बिन्दी चिपकी नजर आती है, मेरी नजर तुरंत बाथरुम के आईने के सामने की पट्टी पर और बिस्तर के बाजू की टेबल पर या उसके पहले ड्राअर के भीतर जा कर उस चिमटी को तलाशती है जो कभी किसी महिला के केशों का सहारा थी, उसे हवा के थपेड़ों में भी सजाया संवारा रखती थी. खैर, सहारा देने वालों की, जिन्दगी के थपेड़ों से बचाने वालों की सदा से ही यही दुर्गति होती आई है चाहे वो फिर बूढ़े़ मां बाप ही क्यूँ न हो. ऐसे में इस चिमटी की क्या बिसात मगर उसके दिखते ही मेरे कानों में एक गुलाबी खुजली सी होने लगती है.

बदलते वक्त के साथ और भी कितने बदलाव यह पीढ़ी अपने दृष्टाभाव से सहेजे साथ लिये चली जायेगी, जिसका आने वाली पीढ़ियों को भान भी न होगा.

अब न तो दाढ़ी बनाने की वो टोपाज़ की ब्लेड आती है जिसे चार दिशाओं से बदल बदल कर इस्तेमाल किया जाता था और फिर दाढ़ी बनाने की सक्षमता खो देने के बाद उसी से नाखून और पैन्सिल बनाई जाती थी. आज जिलेट और एक्सेल की ब्लेडस ने जहाँ उन पुरानी ब्लेडों को प्रचलन के बाहर किया , वहीं स्टाईलिश नेलकटर और पेन्सिल शार्पनर का बाजार उनकी याद भी नहीं आने देता है. तब ऐसे में आने वाली पीढ़ी क्यों इन्हें इनके मुख्य उपयोगों और अन्य उपयोगों के लिए याद करे, उसकी जरुरत भी नहीं शेष रह जाती है.

फिर मुझे याद आता है वह समय, जब नारियल की जटाओं और राख से घिस घिस कर बरतन मांजे जाते थे. आज गैस के चूल्हे में न तो खाना पकने के बाद राख बचती है और न ही स्पन्ज, ब्रश के साथ विम और डिश क्लीनिंग लिक्विड के जमाने में उनकी जरुरत. स्वभाविक है उन वस्तुओं को भूला दिया जाना.

सब भूला दिया जाता है. हम खुद ही भूल बैठे हैं कि हमारे पूर्वज बंदर थे जबकि आज भी कितने ही लोगों की हरकतों में उन जीन्स का प्राचुर्य है. तो यह सारे औजार भी भूला ही दिये जायेंगे, इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं.

अंतर बस इतना ही है कि आज अल्प बचत का सिद्धांत पढ़ाना होता है जो कि पहले आदत का हिस्सा होता था.

अल्प बचत मात्र थोड़े थोड़े पैसे जमा करने का नाम नहीं बल्कि छोटे छोटे खर्चे बचाने का नाम भी है.

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार नवम्बर 12, 2023  के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/8174

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रविवार, अक्टूबर 22, 2023

अजब हाल है मेरे दिल की खुशी का

 

इधर कुछ दिनों से खाली समय में किताबों में डूबा हूँ. न लिख पाने के लिए एक बेहतरीन आड़ कि अभी पढ़ने में व्यस्त हूँ.

हाथ में आई पैड है और उस पर खुली है “शान्ताराम”. नाम से तो शुद्ध हिन्दी तो क्या, मराठी की किताब लगती है मगर है अंग्रेजी में. ईबुक के हिसाब से १७०० पन्नों की है और पढ़ते हुए अब तक लगभग २५० पन्नों के पार आ पाया हूँ मैं.

शायद २५० पन्ने शुरुआत ही है. अभी अभी नामकरण हुआ है न्यूजीलैण्ड के लिन का (जो मुंबई में आकर लिनबाबा हुआ), लिनबाबा से “शान्ताराम”. बहुत चाव से लिन अपने नये नाम शान्ताराम को महाराष्ट्र के एक गांव में आत्मसात कर रहा है जिसका अर्थ है शान्ति का प्रतीक और मैं अब जब शान्ताराम के मुंबई प्रवास और फिर रेल और राज्य परिवहन की बस में सुन्दर गांव की यात्रा को पढ़ रहा हूँ तो अपने मुंबई के ५ वर्षीय प्रवास और अनेक बस और रेल यात्राओं की याद में डूब पुस्तक से इतर न जाने किस दुनिया में खो जाता हूँ. पठन रुक रुक कर चलता है मगर रुकन में भी जीवंतता है. एकदम जिन्दा ठहराव...लहराता हुआ- बल खाता हुआ एक इठलाती नदी के प्रवाह सा- जिसके बहाव में भी नजरों का ठहराव है.

ऐसे लेखकों को पढ़कर लगता है कि कितना थमकर लिखते हैं हर मौके पर- हर दृष्य और वृतांत को इतना जिन्दा करते हुए कि अगर फूल का महकना लिखेंगे तो ऐसा कि आप तक उस फूल की महक आने लगती हैं. माहौल महक उठता है.

नित पढ़ते हुए कुछ गाना सुनते रहने की आदत भी लगी हुई है. अक्सर तो यह कमान फरीदा खानम, आबीदा परवीन, नूरजहां, मुन्नी बेगम, मेंहदी हसन, बड़े गुलाम अली खां साहब आदि संभाले रहते हैं- एक अपनापन सा अहसासते हुए जी भर कर सुनाते हैं अपने कलाम.

आज मन था सुनने का तो सोचा कि औरों को मौका न देने से कहीं जालिम न कहलाया जाऊँ. तो आज इन पहुँचे हुए नामों को आराम देने की ठानी और मौका दिया सबा बलरामपुरी को. सबा ने भी उसी तरह अपनेपन से मुस्कराते हुए अपने दिलकश अन्दाज में सुनाया:

अजब हाल है मेरे दिल की खुशी का

हुआ है करम मुझ पे जब से किसी का

मुहब्बत मेरी ये दुआ मांगती है

कि तेरे साथ तय हो सफर जिन्दगी का...

 

सबा की आवाज की खनक, अजीब सी एक बेचैनी, एक कसक और कसमसाहट के साथ ही उसकी लेखनी मुझे खींच कर ले गई उस अपनी जिन्दगी की खुशनुमा वादी में..जहाँ शायद भाव यूँ ही गुनगुनाये थे मगर शब्द कहाँ थे तब मेरे पास. न ही सबा की लेखनी की वो बेसाखियाँ हासिल थी उस वक्त....जिसकी मल्लिका सबा निकली. वो यादें तो मेरी थीं और हैं भी. उन पर सबा का कोई अधिकार नहीं तो उनमें डूबा मैं तैरता रहा मैं हर पल तुम्हें याद करता...गुनगुनाता:

मुहब्बत मेरी ये दुआ मांगती है

कि तेरे साथ तय हो सफर जिन्दगी का...

दुआएँ यूँ कहाँ सब की पूरी होती हैं. मेरी न हुई तो कोई अजूबा नहीं. अजूबा तो दुआओं के पूरा होने पर होता है अबकी दुनिया में. मानों खुशी के पल खुशनसीबी हो और दुख तो लाजिमी हैं.

मैं सोचता ही रहा और फिर डूब गया शान्ताराम की कहानी में, जो भाग रहा था डर कर कि सुन्दर गांव में नदी का स्तर मानसून में एकाएक बढ़ रहा है और शायद गांव डूब ही न जाये. वो गांव के निवासियों को जब सचेत करता है तो सारे गांव वाले हँसते हैं उसकी सोच पर. सब निश्चिंत हैं कि आज तक वो नदी इतना बढ़ी ही नहीं कि गांव डूब जाये. उन्हें वो स्तर भी मालूम था कि जहाँ तक नदी ज्यादा से ज्यादा बढ़ सकती है.

न्यूजीलैण्ड में रहते भी शान्ताराम को ऐसे किसी विज्ञान का ज्ञान ही नहीं हो सका जो ऐतिहासिक आधार पर ऐसा कुछ निर्णय निकाल पाये. भारत की स्थापित न जाने कितनी मान्यताओं के आगे विज्ञान यूँ भी हमेशा बौना और पानी ही भरता नजर आया है और इस बार भी पानी उस स्तर के उपर न जा पाया. लिनबाबा उर्फ शान्ताराम नतमस्तक है उन भारतीय मान्यताओं के आगे. मैं तो खुद ही नतमस्तक था. उसी भूमि पर पैदा हुआ था तो मुझे कोई विशेष आश्चर्य नहीं हुआ...

सबा है कि छोटे छोटे मिसरे सरल शब्दों मे बहर में गाये जा रही है:

मेरा दिल न तोड़ो जरा इतना सोचो

मुनासिब नहीं तोड़ना दिल किसी का...

तुम्हें अब तरस मुझपे आया तो क्या है

भरोसा नहीं अब कोई जिन्दगी का..

छा गई सबा और उसकी आवाज दिलो दिमाग पर...याद आ गया बरसों बाद उस दिन तुम्हारा मुझको अपने फेस बुक की मित्रों की सूची में शामिल करना इस संदेश के साथ: “हे बड्डी, ग्रेट टू सी यू हियर..रीयली लाँग टाईम..काइन्ड ऑफ पॉज़.... वाह्टस अप- हाउज़ लाईफ ट्रीटिंग यू-होप आल ईज़ वेल”

 

हूँ ह...पॉज कि रीस्टार्ट आफ्टर ए फुल स्टॉप? नो आईडिया!!!

भूल ही चुका था मैं यूँ तो अपनी दैनिक साधारण सी बहती हुई जिन्दगी में..कभी ज्वार आये भी तो उससे उबर जाना सीख ही गया था स्वतः ही..जिन्दगी सब सिखा देती है..यही तो खूबी है जिन्दगी में...जिसके कारण दुनिया पूजती है इसे..कायल है इसकी. मन कर रहा है कि फेस बुक में तुम्हारी वाल पर जाकर सबा की ही पंक्तियाँ लिख दूँ और थैंक्यू कह दूँ सबा को मुझे रेस्क्यू करने के लिए...बचाने के लिए:

तुम्हें अब तरस मुझपे आया तो क्या है

भरोसा नहीं अब कोई जिन्दगी का..

जाने क्या सोच रुक जाता हूँ और बिना कोशिश हाथ आँख पोंछने बढ़ जाते हैं. आँख और हाथ का भी यह अजब रिश्ता आज भी समझ के बाहर है मगर है तो एक रिश्ता. ...अनजाना सा..अबूझा सा,,,हाथ आँखों को नम पाता है..शायद सबा को सुन रहा होगा वो भी मेरे साथ:

अभी आप वाकिफ नहीं दोस्ती से

न इजहार फरमाईये दोस्ती का...

शायद आप तो क्या, हम भी कभी अब वाकिफ न हो पायेंगे. वक्त जो गुजरना था...गुजर गया. बेहतर है मिट्टी डालें उस पर. मगर हमेशा बेहतर ही हो तो जिन्दगी सरल न हो जाये? जिन्दगी तो जूझने का नाम है ऐसा बुजुर्गवार कह गये हैं. गालिब भी कहते थे तो हम क्या और किस खेत की मूली हैं...

शान्ताराम जूझ रहा है..एक भगोड़ा..जिसकी तलाश है न्यूजीलैण्ड की पुलिस को. जमीन छूट जाने की कसक उसे भी है और मजबूरी यह है की कि कैद उसे मंजूर नहीं. कैद की यातना से भागा है..एक आजाद सांस लेने..वो किसे नसीब है भला जीते जी..जमीन की खुशबू से कौन मुक्त हुआ है भला...रिश्तों की गर्माहट को कैसे छोड़ सकता है कोई...बुलाते हैं वो रिश्ते और महक के थपेड़े....खींचते है वो...

सोचता हूँ हालात तो मेरे भी वो ही हैं...मुझे तो कैद का भी डर नहीं...फिर क्यूँ नहीं लौट पाता हूँ मैं..उस मिट्टी की सौंधी खुशबू के पास..अपने रिश्तों की गरमाहट के बीच...उस मधुवन में...क्या मजबूरी है...जाने क्या...सोच के परे रुका हूँ इस पार....एक अनसुलझ उधेड़बून में...अबूझ पहेली को सुलझाता....

सबा कह रही है:

बुरा हाल है ये तेरी जिन्दगी का...

-समीर लाल “समीर”

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अक्टूबर 22 , 2023  के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/7719

 


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