दिसंबर का पहला सप्ताह था। रात दो
बजे दिल्ली हवाई अड्डे से कनाडा वापस
आने की फ्लाइट लेनी थी। नोएडा में जहां हम रुके थे वहाँ से एयरपोर्ट पहुँचने में
आमूमन एक से सवा घंटे लगने थे। चूंकि एयरपोर्ट तीन घंटे पहले पहुंचना होता है अतः
थोड़ा मार्जिन रखकर नोएडा से 9 बजे ही टैक्सी से निकल पड़े। अभी निकले ही थे कि
सामने से एक बारात निकल रही थी। आज मेरे यार की शादी है बैण्ड पर बज रहा था और
बाराती झूम झूम कर नाच रहे थे। 10 मिनट नाच देखते रहे मजबूरी में, तब उन्हीं बारातियों
में एक सज्जन रास्ता साफ कराते नजर आए मानो ट्रेफिक पुलिस का सारा जिम्मा उन्होंने
ले लिया हो। हर बारात में एक फूफा यह जिम्मेदारी अपने काँधों पर थामे रहता है मगर हर
बार 10 मिनट नाच लेने के बाद ही उसे अपनी जिम्मेदारियों का होश आता है।
खैर एक बारात से छूटे और अभी 4 मिनट
भी न गुजरे होंगे, दूसरी बारात। ये देश है वीर जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का
बज रहा है और सब बाराती नाच रहे हैं। फिर 10 मिनट में फूफा अवतरित हुए और गाड़ी आगे
बढ़ी। हर दो
तीन मिनट में एक नई बारात- एक नया गाना और फिर एक नया फूफा। जैसे जैसे नई बारात
मिल रही थी, रात भी अपने शुमार पर चढ़ रही थी और बारातियों पर नशे का खुमार भी। शेर नाच देखा। नागिन नाच तो जमीन
पर लोट लोट कर बाराती नाच रहे और सांप हमारी छाती पर लोट रहा था कि एयरपोर्ट कब
पहुंचेंगे?
टैक्सी वाले ने रेडियो लगा दिया तो
सुनाई पड़ा कि आज दिल्ली में 37000 शादियाँ हैं। हमने तो अभी पिछले एक घंटे में 15
मिनट का सफर करके मात्र 11 शादियाँ क्रॉस की हैं। 37000 -रूह कांप गई। एक बार को
लगा कि शायद पैदल इससे जल्दी पहुँच जाएंगे मगर सामान का ख्याल आते ही इस लगा को
भगा दिया। वैसे खाली हाथ भी होते तो कौन इतना चल पाते। सोच का घोडा है कहीं भी दौड़
लेता है फिर हकीकत की लगाम उसे थामती है।
जब हमारे हाथ मे कुछ नहीं रह जाता तब
हम प्रभु की तरफ ताकते है कि हे प्रभु, अब तुम्हीं नैया पार लगाओ।
अजब बात तो ये है बारात बढ़े न बढ़े,
गाड़ी आगे बढ़े न बढ़े, समय तो बढ़ता ही रहता है।
आज मेरे यार की शादी से शुरू
हुई एयरपोर्ट तक की यात्रा, अभी तो बबुआ पहली भंवर पड़ी है, अभी तो पहुना दिल्ली
दूर खड़ी है से होते हुए बाबुल की दुआएं लेती जा तक जा पहुंची मगर जहां पहुंचना था
वहाँ तक अभी भी न पहुंची। उधर आसमान नारंगी होने को था, चिड़ियाँ चहचहाने को लगभग
तैयार थीं और हम एयरपोर्ट में घुसने को। घड़ी देखी 5:30 बजने को था मगर फिर भी हम
टैक्सी से उतर कर एयरपोर्ट के मुख्य द्वार की तरफ भागे। हवाई जहाज तो दो बजे उड़ ही
गया होगा मगर हम न जाने क्या पकड़ने भागे जा रहे थे।
काऊँटर पर जाकर हमने कहा कि
थोड़ा लेट हो गए। वो मुस्कराया और बोला कि इसे लेट होना नहीं कहते – इसे लेटकर सो
जाना कहते हैं। आपकी नींद तब खुली है जब हवाई जहाज दुबई में उतरने को है।
अब क्या करते। दोनों टिकट
बेकार चली गई। हाई सीजन था अतः अगली फ्लाइट महंगी और दो दिन बाद की मिली। दो दिन
होटल में रुके रहे सो अलग। एयरपोर्ट से सटा हुआ होटल लिया तो थोड़ा महंगा तो था मगर
फिर से बारात में फँसने की न तो की इच्छा थी और न ही हिम्मत।
आज इतने बरस बाद फेसबुक पर
बैठा हूँ तो सैकड़ों जानकार लोगों को 20 वीं शादी की सालगिरह की पोस्ट चढ़ाते देख
रहा हूँ। उसमें से अधिकतर दिल्ली के हैं और याद आता है वो 20 बरस पहले आज ही का दिन
था जब हम फंसे थे।
सोच रहा हूँ इनको बधाई दूँ या
इनके बीच में 4000 डॉलर के नुकसान का मय ब्याज बंटवारा करके बिल भेज दूँ। चलो इस
घटना से प्रेरणा लेकर इतना भी हो जाए कि जिस तरह यहाँ बाईक लाइन अलग से होती है
ताकि तेज रफ्तार गाड़ी, एम्बुलेंस और अन्य एमेरजेन्सी वाहनों को कोई तकलीफ न हो और
सब कार्य सुचारु रूप से होते रहें, उसी की तर्ज पर एक बारात लाईन बनवा दो हर सड़क
के किनारे किनारे। कौन जाने कौन सी जान किसी एम्बुलेंस में, किसी का सर्वस्व आग
में तबाह होने से या किसी की एमेरजेन्सी फ्लाइट या रेल छूटने से बच जाए। हर इंसान
तो मंत्री होता नहीं है कि उनके चलने के लिए सड़कें पहले से खाली करवा ली जाए और न
ही हर एम्बुलेंस की किस्मत ऐसी होती है कि चुनाव का समय हो और मंत्री जी फोटो ऑप के
चक्कर में एम्बुलेंस को रास्ता दे रहे हों।
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक
सुबह सवेरे के रविवार 15 दिसंबर ,2024
के अंक में:
https://epaper.subahsavere.news/clip/14953
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